तरुण प्रकाश, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
प्रार्थना शब्द के साथ जो मानसिक चित्र उभरता है, वह बड़ा ही पवित्र, निश्छल व शांत है- कहीं दूर वादियों में चाँदी की घंटियों की जल तरंग- पहाड़ों की चोटियों पर तैरता सुवासित धूम्र और प्रकृति की अधमुँदी आँखों में तैरता संतोष की पराकाष्ठा तक पहुँचा एक जादू । कितना पवित्र – कितना अलौकिक – कितना दिव्य । प्रार्थना व्यक्ति और परमात्मा के बीच संपर्क सेतु है।
शायद इसी विचार स्तर पर मुझसे यह शे’र जन्मा है
“जिस्म मेरा सफर पे है बाहर,
मेरे अंदर भी है सफर कोई।”
और यह भी –
“मेरे मकान में तारीकियों (अंधेरों) का जंगल है,
मैं अपने दिल में मगर रोशनी सा रहता हूँ।”
और ये -“
तुम मेरे क़द के लिए, कुछ मुगालता मत रख,
मैं एक बूंद में, पूरी नदी सा रहता हूँ ।”
और ये भी –
“देखता है वह समंदर में किसी क़तरे को,
मेरी चाहत है मैं क़तरे में समंदर देखूँ।”
स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर के प्रत्येक रचना स्वयं में अद्भुत है, चमत्कारी है, विशिष्ट है और ईश्वर कोई सामंत नहीं है जो दास प्रथा पर विश्वास करता हो। ईश्वर कोई ऐसा कुम्हार अथवा चित्रकार नहीं है जो मात्र घुटनों तक ज़मीन पर झुके हुए पुतले अथवा चित्रों का ही निर्माण करता हो। ये आत्मविश्वास से लबरेज ह्रदय, आत्म सम्मान से दमकते हुए भाल और जीवन से परिपूर्ण शरीर भी तो ईश्वरीय उपहार हैं। आखिर इस उपहार का क्या अर्थ है? क्या संकेत है- क्या संदेश है इनका? प्रत्येक प्रभात में आंखों के खुल जाने का रहस्य क्या है ? ‘
हमारा प्रतिदिन का एक नया जन्म आखिर क्यों ? ये धूप , ये हवा, ये पानी, ये धरती, ये आकाश क्या केवल उनके लिए हैं जो मंदिरों, मस्जिदों, दरगाहों, चर्चों या अन्य धर्मस्थलों पर पंक्तिबद्ध खड़े अपने खून पसीने की कमाई लिए चढ़ावे हेतु अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं या ये मुक्त आकाश में विचरण करते पक्षियों के लिए भी है, धरती पर उछलती कूदती गिलहरियों के लिए भी हैं, नदियों-समुद्रों में इतराती मछलियों के लिए भी है ? क्या आप नहीं जानते कि सारे प्राणियों में मात्र मनुष्य ही धनोपार्जन करता है – बाकी प्राणियों का पेट कौन भरता है ? धन अर्जित करने वाला मनुष्य भी तो धन न तो खा सकता है, न पी सकता है और न पहन सकता है। उसकी सारी आवश्यक्ताओं की पूर्ति का स्रोत क्या है? जिस ईश्वर ने यह सारी सृष्टि हमारे लिए बनाई है, क्या हम उसे खरीद सकते हैं? आखिर हम अपने अपने देशों में प्रचलित मुद्रा में किसका मूल्य चुका रहे हैं?ईश्वर किस देश में रहता है ? वहां किस देश की मुद्रा प्रचलन में है? इन सबका उत्तर अादिकाल से मात्र धर्म की संखिया का पान कर हमारी मृतप्राय हो चली विवेक शक्ति की ओर एक गंभीर संकेत है।
मैं पुनः अपने मूल प्रश्न पर आता हूँ । प्रार्थना क्या है? क्या ये रिश्वत है ? क्या ये शिकायत है? क्या ये उलाहना है या ये आलोचना है? ऊपर गिनाए गए सारे के सारे शब्द नकारात्मक है तो वे भला किसी प्रार्थना का अंग कैसे हो सकते हैं ? ये सारे शब्द प्रार्थना जैसे स्वउर्जित शब्द के प्रकाश को बंद करते हैं, एक स्वच्छ चित्र पर धब्बा है और विवेक नहीं बल्कि व्यापार हैं।जब हम किसी से कुछ मांगते हैं तो हमें पहले ही यह स्वीकार करना होता है कि हम वंचक हैं और अमुक वस्तु से वंचित हैं और प्रार्थना का अर्थ हमारे अस्तित्व में एक नकारात्मक विष की तरह प्रवाहित होता है। दीन हीन होना, याचना करना अथवा गिड़गिड़ाना यह सिद्ध करते हैं कि हम एक निर्दयी राजा के दरबार में अपने घुटने मोड़ कर, नतमस्तक होकर अपने अपने भिक्षा पात्र लिए खड़े हैं और अपने अपने हक की रोटियाँ माँग रहे हैं। जिस ईश्वर ने हमें बिना बताये हमें जीवित रहने के लिए वायु दी, रहने के लिए धरती दी, वनस्पतियां दी, धूप दी, बारिश दी, मौसम दिये, स्वास्थ्य दिया, संबंध दिये, संततियां दीं, उससे हमें और क्या चाहिए? उसे किस चीज की कमी है ? स्मरण रखने योग्य बात है कि ‘आलोचना’ से ‘धन्यवाद’ और ‘अहंकार’ से ‘कृतज्ञता’ सदैव बड़े होते हैं।
सत्यता यह है कि प्रार्थना का अर्थ ‘धन्यवाद’ है, ‘कृतज्ञता’ है, ‘आशा’ है, ‘विश्वास’ है और घोर अंधकार में भी प्रार्थना ‘प्रकाश’ है। प्रार्थना ईश्वर से उन वस्तुओं व स्थितियों के प्रति मांग शिकायत पर उलाहना नहीं है जो हमारे जीवन में नहीं है बल्कि प्रार्थना ईश्वर से उन वस्तुओं, व्यक्तियों,स्थानों व परिस्थितियों के लिये ‘धन्यवाद’ है जो महान ईश्वर ने हमारे जीवन को उपहार स्वरूप दिये हैं। हम प्रायः इन अमूल्य उपहारों के मूल्य को नकार देते हैं। यह उपलब्ध वस्तुयें तथा विचार हमें कितना बहुमूल्य बनाते हैं, इसका तो शायद हमें अनुमान ही नहीं है। एक विचित्र नकारात्मकता धंसी है हमारी चेतना में।
आलोचना की शैली से धन्यवाद देने की कला तक की यह यात्रा थोड़ा समय तो नहीं सकती है लेकिन असंभव नहीं है। पुरानी आदतें बदलने में थोड़ा समय तो लगेगा किन्तु निरंतर अभ्यास से नई आदतें बन जाएंगी। जरा सोचिए तो – प्रातःकाल हमने आँख खोली, नव प्रभात देखा, चिड़ियों की चहचहाट सुनी और फिर अपने अंदर जीवन को संचारित होते पाया। क्या कल रात में जितने लोग सोये थे, वे सारे ही सवेरे जाग सके हैं ? बहुतों को दूसरा सवेरा नसीब नहीं हुआ। क्या पुनर्जागरण की यह घटना धन्यवाद योग्य नहीं है? हमने खुली हवा में सांस ली, पानी पिया, भोजन किया, जबकि अनेक अनेक स्थानों पर न तो स्वच्छ वायु उपलब्ध है, न पानी है और न ही खाद्य सामग्री, क्या यह घटना धन्यवाद योग नहीं है? हम दूसरों को कोसने, शिकायतें करने और आलोचना करने के इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि हम यह भी याद करने का कष्ट नहीं करते कि जीवन में आलोचना करने से धन्यवाद देने के अवसर कई गुना अधिक हैं।
उदाहरणार्थ – हम सब अपने अपने कार्य करके जब रात्रि में अपने अपने घर पहुंचते हैं तो हम सबको भोजन थाल में गर्मागर्म रोटियां तैयार मिलती हैं। ज़रा सोचिए, ईश्वर ने यदि जल, हवा, वायु, मिट्टी, क्षितिज न बनाया होता तो वनस्पति कैसे पनपती? किसी ने अपने खेतों में बीज रोेपे होंगे, रात रात भर नंगे पाँवों पानी से सिंचाई की होगी, समय आने पर रोपाई पर निराई की जाती रही होगी,फसलों की अपने बच्चों की तरह सेवा वह देखभाल की जाती रही होगी, किसी ने हसिया ले अनाज काटा होगा , किसी ने अन्न व भूसे को अलग किया होगा, कोई उसे मंडियों में लाया होगा, किसी ने उसे बाज़ार तक पहुंचाया होगा, किसी ने उसे आटा बनाने के लिए पीसा होगा, आवश्यकतानुसार ऐसा आटा हम सबके घर में आया होगा, घर-घर में मां, ने बहनों ने, पत्नियों ने उसे गूँथ कर सुघड़ चंदा के समान रोटी के रूप में बेला होगा, तवे पर सेंका होगा और रोटियां बनाते समय अपने प्रेम व स्नेह की समस्त सकारात्मक ऊर्जा भोजन के थाल में परोस दी होगी ताकि हम थक कर घर लौटने पर स्वादिष्ट भोजन कर अपने अंदर पुनः ऊर्जा संचारित कर सकें।
क्या ये तमाम लोग, ये तमाम परिस्थितियां जिनका अंतिम परिणाम हमारे हाथ में एक रोटी के कौर के रूप में है, धन्यवाद के पात्र नहीं हैं? क्या हमने कभी इनको धन्यवाद दिया? इनके प्रति आभार प्रकट किया ? कृतज्ञता ज्ञापन किया? नहीं, कदापि नहीं किन्तु हमें आलोचना का एक अवसर मिला और किसी कुशल खिलाड़ी की तरह हमने उसे लपक लिया। -ध्यान देने योग्य तथ्य है – रात्रि भोज में एक रोटी की प्राप्ति के पीछे इतने व्यक्तियों के प्रयास व सकरात्मक ऊर्जा की श्रंखला उपस्थित है तो हमारी प्रत्येक सांस,प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक स्थिति के पीछे महान ईश्वर ने कितना कुछ रचा होगा। ये उपहार, ये उपहारों की अनंत श्रृंखला ईश्वर की ही देन है। ये सवेरा, ये शाम, ये धरती, ये आकाश, ये हवा, ये पानी, ये आग, ये वनस्पतियाँ, मित्रता, संबंध, खुशियां, उल्लास, चेतना, विचार, विवके, ऊर्जा, करुणा, दया, प्रेम, समर्पण, स्नेह – क्या क्या नहीं दिया ईश्वर ने हमें और हम हैं कि ईश्वर से शिकायत कर रहे हैं, मांग रहे हैं, उलाहना दे रहे हैं और प्रार्थना को एक निंदनीय शिकायती पत्र बनाने पर आमादा हैं, कितने कृतघ्न हैं हम, कितने बड़े बड़े अपराध करते हैं, कितना अविश्वास है हमें ईश्वर पर। हम जानते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापी है किन्तु हम उसे मंदिर, मस्जिद चर्चों और गुरुद्वारों में ही ढूंढते हैं। हम जानते हैं कि ईश्वर हर संज्ञा से परे है किन्तु हम उसे नाम देते हैं -उसे वर्गों में बांटते हैं -जातियों, संप्रदायों व धर्मों में विभाजित करते हैं।
हम जानते हैं कि कि ईश्वर सर्वज्ञाता है किन्तु हम बार बार अधिकतर अपनी आवश्यकताओं की सूची से थमाते हैं। एक बार धन्यवाद तो देकर देखो – भोजन के समय क्योंकि बहुत से लोग भूखे हैं और तुम्हें भोजन प्राप्त हुआ, रोजगार पर जाते हुए क्योंकि बहुत से लोग बेरोजगार हैं और तुम्हारे पास धनोपार्जन के लिए कार्य है, जब स्वस्थ हो तो धन्यवाद दो क्योंकि एक बीमार व्यक्ति किसी भी कीमत पर स्वास्थ्य को प्राप्त करना चाहता है, तुम्हारे पास आंखें हैं किन्तु हजारों लोग अंधे हैं, तुम्हारे बस हाथ पर है मगर हजारों लोग अपंग हैं -अपाहिज हैं, तुम्हारे पास परिवार हैं, मित्र हैं, किन्तु लाखों लोग अकेले हैं । एक बार मेरी तरह धन्यवाद देते हुए कृतज्ञ होते हुए प्रार्थना करके देखो- सुख व आनंद की वो परिपूर्णता प्राप्त होगी जिसकी कल्पना भी अकल्पनीय है। मेरी दृष्टि में तो यही है वास्तविक प्रार्थना ।